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नमस्कार आप देख रहे हैं त्रिशूल न्यूज भारत और मै हूं आपका होस्ट करण सक्सेना
आज हम बात करेंगे आजादी से आज तक की राजनीति और जनता की सेवा या जनता को भटकाना क्या रही नेताओं की सच्चाई।
“राजनीति का घिनौना चेहरा: 1947 से 2025 तक सत्ता की सच्चाई”
नई दिल्ली से बड़ी खबर
भारत की आज़ादी को लगभग 78 साल बीत चुके हैं। लेकिन इन दशकों में राजनीति का चेहरा बार-बार बदला — और हर बदलाव ने सत्ता की सच्चाई को और गहराई से उजागर किया।
1947 से लेकर 2025 तक का सफ़र जनता की सेवा से शुरू होकर सत्ता की भूख पर आकर थम गया है।
1947 से 1960 — त्याग और सेवा का युग
आज़ादी के शुरुआती वर्षों में राजनीति का मतलब था “जनसेवा”।
महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल जैसे नेताओं ने राजनीति को देश निर्माण का मिशन बनाया।
ईमानदारी और त्याग राजनीति की पहचान थी, सत्ता नहीं बल्कि सेवा सर्वोच्च लक्ष्य था।
1960 से 1980 — सत्ता का स्वाद और लोकतंत्र पर प्रहार
इस दौर में राजनीति का स्वरूप बदलने लगा।
परिवारवाद और जातिवाद ने अपनी जड़ें मजबूत कीं।
1975 की इमरजेंसी ने लोकतंत्र को झकझोर दिया — जब सत्ता के नशे में जनता की आवाज़ को दबा दिया गया।
लोकतंत्र की आत्मा पर यह सबसे बड़ा प्रहार था।
1980 से 2000 — भ्रष्टाचार का स्वर्णकाल
इस कालखंड में घोटालों की झड़ी लग गई।
बोफोर्स, चारा, हवाला जैसे मामलों ने राजनीति की सच्चाई उजागर कर दी।
“जनसेवक” अब “सत्तासेवक” बन चुके थे।
चुनाव विचारधारा नहीं, बल्कि धन और शक्ति का अखाड़ा बन गए।
जनता सिर्फ़ दर्शक बनकर रह गई।
2000 से 2020 — डिजिटल दौर, लेकिन पुरानी सोच
तकनीक आई, सोशल मीडिया ने राजनीति को नया मंच दिया।
लेकिन असल मुद्दे — बेरोज़गारी, किसान आत्महत्या और महंगाई — अब भी वहीं खड़े रहे।
“डिजिटल भारत” के नारों में जनता की तकलीफ़ें दब गईं।
धर्म और नफ़रत ने विकास की जगह ले ली।
2020 से 2025 — राजनीति का ब्रांड युग
अब राजनीति एक “ब्रांड” बन चुकी है।
नेता जनता से नहीं, कैमरे से बात करते हैं।
गरीब की भूख पर भाषण, सैनिकों के बलिदान पर प्रचार — यही नई राजनीति की पहचान बन गई है।
जनता की आवाज़ अब तालियों और ट्रेंड्स के बीच कहीं खो गई है।
निष्कर्ष — सत्ता जीत गई, नैतिकता हार गई
भारत की राजनीति आज उस मोड़ पर है जहाँ
नैतिकता हार चुकी है और स्वार्थ सर्वोच्च बन गया है।
राजनीति अब जनता के लिए नहीं, बल्कि जनता के नाम पर चल रही है।
देश के नागरिकों के लिए सवाल यही है —
क्या हम फिर कभी “जनसेवा वाली राजनीति” देख पाएंगे?